शनिवार, 14 जून 2008

संदर्भ

1.
आरोग्य विज्ञान तथा जन-स्वास्थ्य, डॉ लक्ष्मीकांत
किताब महल रोड, तानर्थहिल रोड. इलाहाबाद
2.
स्वास्थ्य रक्षक
डॉ. प्रेमदत्त पाण्डेय
निरोगधाम प्रकाशन, 119,जावरा कम्पाउम्ड, इलाहाबाद
3.
आहार विज्ञान
सत्यपाल
सस्ता साहित्य मण्डल, एन-77,कनॉट सर्कस, नई दिल्ली-110001
4.
दुग्ध चिकित्सा
छोटा लाल शाह
हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, गिरगॉव, हीरा बाग, बम्बई-4
5.
दूध चिकित्सा
महेन्द्र नाथ पाण्डेय
महेन्द्र रसायन शाला, कटरा, इलाहाबाद
6.
गर्भ स्थिति प्रसव
डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा
सुबोध पर्किट बुक्स-2 दरियागंज,नई दिल्ली -110001
7.
सगर्भावस्था और आपका बालक
डॉ. बाबालालन भीमती उषा बहन बा परीक्षा
गाला पब्लिकेशन्स, भवानी शंकर रोड, दादर, बम्बई -400028
8.
गर्भवती प्रसूता और बालक
कविराज हरनाम दास
सुखदाता फार्मेसी पब्लिकेशन्श, गौरी शंकर मेंदिर,लाल किले के पास चाँदनी चौक, देहली.
9.
बच्चे की देखभाल
डॉ. पी. तिरूमल राव
राजपाल एण्ड सन्स कश्मीरी गेट, दिल्ली.
10.
कल्याण नारी अंक
11 बच्चे के प्रांरभिक वर्ष प्रो। जगदीशसिंह एवं श्रीमती भगवन्त जगगदीश सिंह
नेशनल पब्लिकेन हाउस, नई सड़क, देहली।

12 शिशु का अधिकार या जच्चा बच्चा
डॉ पी. एल. चोपरा निर्माण प्रकाशन, 51,राइट टाउन, जबलपुर

13 शिशु पालन, डॉ. युद्धवीर सिंह राजपाल एण्ड सन्स,कश्मीर गेट, दिल्ली।

14 मातृ एवं शिशु कल्याण डॉ श्रीमती जी।पी. शैरी विनोद पुस्तक मेंदिरराघव मार्ग, आगरा-2

15 डॉ. मालती श्रीखण्डे साथी प्रकाशन, सागर (म.प्र)
16 स्तन सौंदर्य कैसे बढ़ाएं डॉ. कालीकरण गुप्ता वर्ल्ड बुक कम्पनी, 4531, दाईबाड़ा,
सड़क, दिल्ली-6
17 माँ के दूध में कमी डॉ. श्रीमती उषा शर्मा निरोध धाम, त्रैमासिक पत्रिका,
अक्टूबर- 1989 अंक

18 मातृत्व का अनुठा उपहार-स्तनपान डॉ। अनामिका प्रकाश नवनीत, डाइजेस्ट, फरवरी-1992अंक

19 स्तनपान कुछ -अनजान तथ्य सर्वोत्तम, रीडर्स डाइजेस्ट, दिसम्बर-1983 अंक

20 ममतामयी माँ की महिमा मण्डित मातृत्व महेन्द्र जैन प्रतियोगिता दर्पण, मासिक पत्रिका, जून1988 अंक

इन सबके साथ ही उन सभी जाने-अनजाने अथवा ज्ञात-अज्ञात लेखों प्रकाशकों पथप्रह्धशकों व सत्ववेत्ता महानुबावों का भी में व्यक्तिगत रूप से अत्यन्त आभारी हूँ ,जिन्होंने इस पुस्तक के बीज को अंकुरित, पल्लवित ,विकसित होने तता फूलने-फलने में प्रत्यक्ष रूप से अमूल्य एव अवर्णनीय सहयोग दिया है.
-लेखक

वेद-पुराणों में माता का स्थान



चारों वेद, अठारह पुराण, अध्यात्म रामायण, महाभारत इत्यादि के प्रणेता महर्षि वेदव्यासजी कहते हैं-
“पितुरष्यधिका माता गर्भधारणपोषणात्।
अतो हि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृसमों गुरुः।।”
अर्थात् पूत्र के लिए माता का स्थान पिता से भी बढ़कर है, क्योंकि वह उसे गर्भ मे धारण कर चुकी है तथा माता के द्वारा ही उसका पालन-पोषम हुआ है। अतएव तीनों लोगों में माता के समान दूसरा कोई गुरू नहीं है।

ब्रह्ममवैवर्त्तपुराण-
“जनको जन्मदातृत्वाद पालनाच्च पिता स्मृतः।
गरीयान जन्मदा तुश्य योअन्नदाता पिता मुने।।
तयोः शतगुणे माता पूज्या मान्या च वन्दिता।
गर्भधारणपोषाभ्यां सा च चाभयां गरीयसी।”

अर्थात् जन्मदाता और पालनकर्ता होने के कारण सब पूज्यों मे पूज्यतम जनक और पिता कहलाता है। जन्मदाता से भी अन्नदाता पिता श्रेष्ठ है। इनसे सौ गुनी श्रेष्ठ और वन्दनीय माता है, क्योंकि वह गर्भधारण तथा पोषण करती है।


स्मृति का वचन है-
“उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्ते।।”
अर्थात् एक आचार्य गौरव में दस उपाध्याकों से बढ़कर है। एक पिता सौ आचार्यों से उत्तम है एवं एक माता सन्त्र पिताओं से श्रेष्ठ हैं।
“दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान् पिता दश।।
दश चैव पितृन् माता सर्वा वा पृथिवीमपि।
गौरवेणाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरूः।।
माता गरीयसी यच्च तेनौतां मन्यते जनः”
अर्थात् गौरव में दस आचार्यों से बढ़कर उपाध्याय, दस उपाध्यायों से बढ़कर पिता और दस पिताओं से बढ़कर माता है। माता अपने गौरव से समूची पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतएव माता के समान कोई गूरू नहीं है। माता का गौरव सबसे बढ़कर ,इसलिए लोग उसका विशेष आदक करते हैं।
महाभारत, द्वितीय खण्ड,वनपर्व के अन्तर्गत तीन सौ तेरवां अध्याया-

“माता गुरूतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा।”
अर्थात् माता का गौरव पृथ्वी से भी भारी (अधिक) है।

मैथलीशरण गुप्तजी विरचित “यशोधरा” की निम्नांकित पंक्तियाँ तो नारी जीवन के समग्र रूप को एक साथ प्रगट कर देती हैं-

“अबला-जीवन, हाय। तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।”
श्री रहिबंश नारायणदास “आर्ताहरि”-
“तू कामधेनूका मधु-पय, शुचि सलिल जहनुजाताका।
या सुधा क्षीरनिधि की है, देवता प्यार माता का।।”
श्री नयनजी-
“मुझको माँ के सिवा न कोई, अन्य दीखता इस जग बीच।
माँ की शान्तगोद से मुझको, कभी न सकता कोई खींच।।”
लाला जगदलपुरी-
“नारी के आँचल में जीवन, उसके आँचल में सुधा वृष्टि
शुचि सुधा-वृष्टि में प्रेम-प्यार, और औ प्रेम-प्यार में पली सृष्टि।।”
प्रतापनारायणजी-
“शक्ति है यह मायालीला, जगत को यह ही जनती है ।
बहिन है, पत्नी है यह ही, सुता भी यह ही बनती है ।”
वेदवती शर्मा प्रभाकर-
“प्रभु-सत्ता की प्रबल शक्ति अति, मानवता का अतुल विकास ।
पूर्ण विश्व की जन्मदायिनी, विधि-संसृति का सफल प्रयास ।।”
पं। श्री दामोदरजी शास्त्री-
“जननी तेरी कोमलता, तू है कोमलता-धारा ।
कोमलतामय जीवन रख कोमल तव मृत्यु-किनारा ।।”
“गर्भधारणपोषाद्धि ततो माता गरीयसी ।”
अर्थात, सन्तान को गर्भ में धारण करने एवं विविध कष्ट सहर भी उसका पालन-पोषण करने के कारण माता की पदवी सबसे ऊँची है ।
“मातृतोअन्यो न देवोअस्ति तस्मात्पूज्या सदा सुतैः ।”
अर्थात् पुत्रों के लिए माता परम पूजनीय है । माता के होते हुए उनको किसी दूसरे देवता की पूजा करना आवश्यक नहीं है ।
“आयः पुमान् यशः स्वर्ग कीर्ति पुण्यं वलं श्रियम् ।
पशुं सुखं धनं धान्यं प्राप्रुयान्मातृवन्दनात् ।।”
अर्थात् माता की सेवा करने वाला सत्पुरुष दीर्घायु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल लक्ष्मी, पश, सुख, धन्य, धान्य- सब कुछ प्राप्त कर सकता है ।
“धिगस्तु जन्म तेषां वै कृत्घनानां च पापिनाम् ।
ये सर्वसौख्यदां देवीं स्वोपास्यां न भजन्ति ।।”
अर्थात धिक्कार है उन कृतध्न, अपकारी, पापी, दुर्जनों को जो सर्वसुख प्रदायिनी माता की सेवा- शुश्रूषा नहीं करते ।
ब्रह्मवैवर्त्तपुराण-
“स्तनदात्री गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया ।
अभीष्टदेवपत्नी च पितुः पत्नी च कन्या ।।
सगर्भजा या भगिनी पुत्रपत्नी प्रियाप्रसूः।
मातुर्माता पितुर्माता सोगरस्य प्रिया तथा ।।
मातुः पितुश्य भगिनी मातुलानी तथैव च ।
जनानां वेदविहिता मातरः षोडशस्मृता ।।”
अर्थात् स्तन पिलाने वाली, गर्भ धारण करने वाली, भोजन देने वाली, गुरुपत्नि, इष्टदेवता की पत्नि, पिता की पत्नि (विमाता अथवा सौतेली माँ), पितृकन्या (सौतेली बहन), पुत्रवधू, सासू, नानी, दादी, भाई की पत्नि, मौसी, बुआ और मामी- वेद में मनुष्यों के लिए सोलह प्रकार की माताएँ बतलायी गयी हैं । अतएव उपरोक्त वर्णित तथ्यों से स्पष्ट है कि सभी माताओं में अमृत-तुल्य स्तन-पान कराने वाली माता का स्थान सर्वश्रेष्ट है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है

माता और महिला

माता की महिला
धन्य हैं वे जननियाँ, जिनकी गोद सुन्दर व सशक्त बालकों से समृद्ध है। धन्य हैं वे माताएँ, जिनके अंगों बालकों की धूलि से सलीन होते हैं। और धन्य हैं वे स्वर्गतुल्य घर-संसार, जो बाल-रत्नों से समृद्ध हैं। मातृत्व नारी के जीवन का केवल बूषम ही नहीं, जीवन की पूर्णता भी है। नारी के जीवन की कठोर तपस्या ही मातृत्व की साधना है। परित्यक्ता शकुनतला की तपस्या ने ही भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने वाले भरत का निर्माण किया। पति द्वारा तिरस्कृत जीजावाई ने ही स्वराज् संस्थापक छत्रपति शिवाजी को बनाया और धर्मोपासिका पुतलीबाई ने ही विश्वबन्धु व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को प्रतिष्ठित किया। मातृत्व एक ऐसा अमर गीत है, जिसमें समाज, देश, काल, परिस्थिति ,जीवन,धरम,भाषा आदि से सम्बन्ध रखने वाले अनन्त परिवर्तनों की भीड़ में एक स्वर का बी अन्तर नहीं आया है। मातृत्व एक ऐसी अग्रि रेका है, जिसे विश्व की समस्त अनास्था, अविश्वास और घृणा की भयानक आँधी भी नहीं छू सकती ।

शब्द-व्युत्पत्ति द्वारा मातृ शब्द के भाव को जानने की चेष्टा वैसी ही है, जैसी कि किसी फूल की नसों को उधेड़-उधेड़कर उसके सौंदर्य को परखने की चेष्टा। मातृत्व का शाब्दिक अर्थ होता है माँ होने का भाव, माँ-पन, अपनापन,ममता, ममत्व । मातृ का भाव निर्मातृ अर्थात निर्माण करने वाली जननी भी है।नारी चाहे कितनी भी अबला या सबला हो, माताके रूप मे ही उसका सर्वोत्कृष्ट स्वरूप देखने को मिलता है। माँ शब्द में ही ऐक अनिर्वचनीय पवित्रता है। हमारे उच्चतम व कोमनलतम विचार और प्रियतम व चिरसंचित स्वप्न उसी में केन्द्रित हैं। मातृ शब्द का व्यवहार हम उन वल्तुओं के लिए करते हैं, जिन्हें हम जीवन में सर्वाधिक प्यार करते हैं। जैसे हम “मातृभूमि” और “मातृभाषा” का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि अपने देश और अपनी भाषा को हम दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं।

बच्चे उतने ही ऊँचे उठ सकते हैं, जितनी ऊँची स्थिति में उनकी माताएँ होती हैं। वस्तुतः बच्चे ही राष्ट्र के भावी नेता और मानवता के उद्धारक होते हैं और उन्हें इस योग्य बनाने का उत्तरदायित्व माता पर ही है। सन्तान को भी ऐसा विश्वास होता है कि उनकी माता सब प्रकार की मानवीय भूलों और दूर्बलताओं से ऊपर उठी हुई है। जैसी भूमि वैसी ऊपज, जैसी माता वैसी सन्तान।

जैसे माताओँ को पुत्र के दोष नहीं दीखते, वैसे ही पुत्र भी माताओं के दोष देखने में अक्षम होते हैं। अपने बच्चों को प्यार करते समय सभी माताएँ सर्वगुण समपन्न हो जाती हैं, कोई माता जरा-जीर्म कुरूप व दरिद्र नहीं रहती । नीतिशात्र के सारे नियम-उप-नियम यदि किसी एक अत्यन्त प्रिय व्यक्ति में एकत्रित हो सकते हैं, तो पुत्र के लिए एक “माँ” शब्द मे वे सब के सब संग्रहित हो जाते हैं। यदि वसुन्धरा पर कोई ऐसी वस्तु है, जो प्राकृतिक प्रेम की अधिक से अधिक स्मृति दिला सकती है, तो वह “माँ” है।

इस मृत्युलोक में ऐसा कोई भी जीव-जन्तु अथवा प्राणी नही जो नारी सहयोग के बिना सिर्फ नर से ही उत्पन्न हुआ हो, होता हो या नर उसे उत्पन्न कर सकता हो। अर्थात् सारांश यह कि “नारी नर की खान” है। पौराणिक-मतानुसार परलोक में गया हुआ सूक्ष्म आत्मा खाद्यान्न आदि मे आकर 84 लाख योनियों मे से किसी भी योनि को प्राप्त करके नर के उदर में जाता है और फिर वही वीर्य बनकर नारी के गर्भ में निवास करता व पुत्र रूप मे प्रकट होता है। वैज्ञानिक मतानुसार नर वीर्य रूप में नारी के उदर में प्रवेश करता है और फिर वही पुत्र होकर बाहर आता है । उस समय उसके रंग-रूप, आकृति-प्रकृति, गुम-दोष धर्म-कर्म आदि पुत्र में अंकित रहते हैं। व्यवहार में पत्नी पति को पुत्र रूप में परिणत करके माता के रूप में स्तनपान करके पोषित होता और पुत्र नाम से प्रसिद्ध होता है। इस प्रकार व परस्पर सम्बन्ध की दृष्टि से “पति-पत्नी” और “माता-पुत्र” ही कहलाते हैं। भोजन किए हकुए जीवन-तत्व व पौष्टिक पदार्थों के सारभूत अंश से गर्भस्थ बालक की क्षुधा-तृप्ति तो होती ही है, साथ ही उसके अस्थि-मज्जा-मासादि भी बढ़ते हैं। यद्यपि नारी अपने खाद्य पदार्थों को मुँह से खाती है, लेकिन बालक माता की रसवहा तथा अपनी नाभिवहा नाड़ी के द्वारा खाता-पीता व पोषित होता है। यह वही नाड़ी है, जिसे नाल कहते हैं तथा जन्म उपरान्त जिसका किया जाता है।

माता में सृष्टि उत्पादन की क्षमता व प्रकृति का प्रतिरूप होने की सामर्थ्य के अवलावा दोहद, दौहृद या दौहृदिनी (दो हृदय वाली) होने की अलौकिक विशेषता भी है। शशीर विज्ञान के अनुसार गर्भावस्था के दिनों में बालक जब चार माह का होता है, तब उसके समरस्त अंग-उपांग बन जाते हैं और वह हृदयवान हो जाता है। तत्समय उसके हृदय की अभिलाषाएं माता के हृदय द्वारा प्रकट हुआ करती हैं। इसी कारम गर्भवती महिलाएं इन दिनों मे खान-पान, आचार-विचार, आहार-विहार, वत्राभूषण सम्बन्धी अपेक्षाकृत कुछ विशिष्ट प्रकार की अनेक अभिलाषाएँ प्रकट किआ करती हैं। वे सभी अभिलाषाएँ गर्भस्थ बालक बालक की होती हैं तथा उनकी पूर्ति करना नितांत आवश्यक है। किसी भी कारम से उनकी पूर्ति न की जाने की स्थिति में गर्भगत बालक के बुद्धिहीन, विकेकहीन व विकलांग होने की भी सम्भावना रहती है।

ख्यादिप्राप्त आम धारणा यह है कि यद्यपि सातवें महीने मे जन्म लेने वाला बालक जीवित रह जाता है, तथापि आठवें महीने मे जन्म लेने वाला जीवित नहीं रहता । इसका मुख्य कारम यह है कि गर्भ में बालक जब लगभग उठा महीने का हो जाता है, तबह उस समय उसके ओज की उत्पत्ति हो जाती है। ह ओज कभी बालक के हृदय में रहता है और कबी माता के हृदय में चला जाता है। ही ओज जिस समय बालक के हृदय से माता हृदय में गया हुआ होता है, यदि उसी समय बालक का जन्म हो जाय, तो वह जीवित नहीं रहता । जीवनप्रद ओज केन होने से तत्काल या कु्छ कालान्तर में काल-कवलित हो जाता है। माता के लिए यह विशेषतः अत्यन्त दुध-द हृदय विदारक, चिन्तनीय व अविस्मरमीय है।
सर्वविदित है कि मानव जाति की नारी लगभग प्रतिमास रजस्वला होती है तथा तत्समय लगभग तीन दिन तक रक्तस्त्राव हुआ करता है, जिसे मासिक धर्म कहते हैं। तदनन्तर शुद्ध स्नान करने के बाद आगामी मासिक धर्म के पूर्व यदि गर्भ ठहर जाता है, तब मासिक धर्म बन्द हो जाता है। साथ ही गर्भस्थ बालक के जन्म लेने से पहले ही लगभग नौ माह के अन्दर नारी के पयोधर दुग्धपूर्ण हो जाते हैं, जिनको नवजात शिशु पीता व पोषित होता है। यह प्रक्रिया शिशु के स्तनपान करने पर्यत्न चलती रहती है। जब शिशु स्तनपान करना बन्द कर देता है तब मासिक धर्म अथवा रक्तस्त्राव की पुनरावृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। अब यहाँ एक तार्किक सवाल पैदा होता है। कि अतिकाल से रुके हुए रुधिर शोणित अथवा रक्त कहाँ जाता है और स्तन-पान बन्द होने के बाद स्तनों का दूध कहाँ जाता है इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक अनुसन्धान द्वारा प्रमाणित हो चुका है कि गर्भ ठहरने के बाद मासिक धर्म का रुधिर अथवा रक्त ही दूध के रूप मे परिणत हो जाता है और शिशु द्वारा स्तन-पान का त्याग करने के पश्चात फिर वही दूद रुधिर का रूप धारण कर लेता है। यह अमृत-तुल्य स्तन-पान सम्बन्धी माताओं की शारीरिक रचना की एक अद्भुत विशेषता है।

माता जब सन्तान के सम्मुख आती है, तब तो वह अपने समस्त स्न्नेह को स्तनों के माध्यम से सन्तान को पिला देती है। वह उसे अपने तन से भी अधिक समझकर आत्मीय सुख पहुँचाती है। स्वयं प्यासी रहकर पुत्र को पानी पिलाती है। स्यंग भूखी रहकर बच्चे को भोजन खिलाती है। स्वयं गीले में सोकर सन्तान को सूखे मे सुलाती है। इस प्रकार हम जब भी माता को पाते हैं, विभिन्न रूपों में ही पाते हैं और जिस रूप में भी पाते हैं, उसी रूप में सेवा करते हुए, अपने आपको मिटाते हुए, अपनेपन को लुटाते हुए ही पाते हैं। उसके जीवन में उत्सर्ग है, उसकी मुसकान में सृजन है, उसके मोह में स्न्नेह है, उसके बन्धन में दान है और उसके दूध में अमृत है। वह श्री है। वह शक्ति है। वह चिति है। वह भक्ति है। वह श्रद्धा है। वह पूर्णा है। वह देवी है। वह मान्या है। वह पूज्या है। वह आराध्या है। वह सब कुछ है। वस्तुतः माता स्तवन करने योग्य समस्त यथार्थों व तथ्यों से परे है और माता की महिमा वाणी एवं शब्दों से परे है।

स्तन-पान सम्बन्धी विभिन्न क्रिया-कलाप



(1) दोनों स्तनों से क्रमानुसार दूध पिलाएँ
हमेशा ध्यान में सखने लायक बात यह है कि स्तनों को पूर्मतः दूग्धशून्य करने से दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है। यदि माता को इतनी मात्रा में दूध उतरता है कि एक समय में एक ही स्तन से बच्चा पेट भर सकता है तो एक बार में एक ही स्तन से दूध पिलाना चाहिए । यदि पहली खुराक के समय बाँये स्तन में पिलाया है तो दूसरी खुराक के समय दाहिने स्तन से पिलाना चाहिए। यह सामान्य नियम है, क्योंकि एक स्तन जोपूरी तरह से दुग्धशून्य हो जाता है, उसे दुबारा दुग्धपूर्ण होन में लगभग आठ घंटे का समय लग जाता है, इसलिए साधारणतया सात पौण्ड वाले पूर्णतः स्वस्थ व हूष्ट-पुष्ट बच्चे को प्रत्येक चार-चार घंटे में दूध पिलाते रहना चाहिए। लेकिन यदि बच्चे का वजन छः पौण्ड या इससे कम है तो उसे तीन-तीन घण्टे के अन्तर से खुराक देनी चाहिए।

यदि एक समय में एक स्तन का दूध पूरा नहीं पड़ता है तो दूसरे स्तन का दूध भी पिलाना चाहिए। इस स्थिति में भी क्रमानुसार यदि माता ने पहले बाँया स्तन खाली किया है, तदुपरान्त दाहिना स्तन तो अगली बार दूध पिलाने की शुरुआत दाहिने स्तने से करनी चाहिए और यदि माता ने पहले दाहिना स्तन खाली किया है, तत्पश्चात् बाँये स्तन आधा काली किया है, तो अगली बार दूध पिलाने की शुरुआत बाँये स्तन से करनी चाहिए।

(2) नियमित रूप से दूध पिलाएँ
दूध पिलाने का क्रम नियमित करना अथवा दूध पिलाने के लिए समय नियत करना नितान्त आवश्यक है। जब बच्चा पूर्व निर्धारित समय पर दूध लेने का अभ्यासी हो जाता है, तो एक तो प्रारम्भिक चरण में ही उसमें अनुशासन की नींव पड़ती है और दूसरे, माता को घरेलू तथा शिशु संबंधी अन्य काम-धन्धों को निबटाने का समय मिल जाता है। इसलिए माता को अपनी सुविधानुसार वक्त का चुनाव करना चाहिए।

दूध पिलाने की समय-सारणी एकाएक निर्धारित नहीं हो सकती। प्रारम्भिक दौर में यह अटपटा और अनियमित ही चलता रहता है। ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन फिर भी क्रमशः धीरे-धीरे प्रयास जारी रखने से कुछ दिनों के अन्तराल में माता व बच्चा दोनों ही समय के पाबन्द हो जाते हैं। खुराक देने का समय निश्चित करने में मता को अपने साथ-साथ बच्चे की सुविधा का भी ध्यान रखना चाहिए, लेकिन अन्तर बच्चे की उम्र के हिसाब से तीन-तीन खथवा चार-चार घण्टे का ही निभाना चाहिए। जैसे-दिन-रात 6-9-12-3-7-10-1-4,8-11-2-5-9-12-3-6 अथवा 6-102,7-11-3,8-12-4-,9-1-5 बजे।

इसके अलावा बच्चा जब भी रोए, दूध नहीं पिलाना चाहिए। बच्चे का रोना चाहे रात का हो या दिन का, और भी अनेक कारणों से हो सकता है जिसका प्रयत्नपूर्वक पता लगाकर तदनुसार उपाय करना चाहिए। सामान्य सी बात है कि जो बच्चा थोड़ी ही देर पूर्व भर पेट दूध पी चुका है, वह दूध अभी हजम नहीं हुआ है और वह भूख के कारण नहीं रो रहा है।

(3) कितनी देर तक स्तनपान कराना चाहिए
बच्चे को कितनी देर तक दूध पिलाना चाहिए, यह इस बार पर निर्भर करता है कि बच्चे के दूध पीने की गति कितनी है, वह कितने समय में भरपेट दूध पी लेता है, उधर माता के स्तनों में से दूध उतरने की रफ्तार कितनी है, उसके स्तनों में दुग्ध भण्डार की क्या स्थिति है, आदि-आदि । वस्तुतः इस सम्बन्ध में सभी माताओं और सभी बच्चों के लिए एक ही कठोर तथा अपरिवर्तनीय नियम लागू नहीं किया जा सकता। कुछ बच्चे यदि एक बार स्तन मुंह में गया, तो निरन्तर पेट पूरा भरकर ही दम लेते हैं। कुछ बीच में रुक-रुककर आराम से पेट भरते हैं। इसके अलावा दूध पिलाने के समय को बच्चे की उम्र भी प्रभावित करती है। आमतौर पर यह समय 10से30 मिनट का होना चाहिए। अधिक से अधिक 40 मिनट तक। इससे अधिक समय बिल्कुल नही देना चाहिए। कुछ बच्चे पेट भर जाने के बावजूद स्तन चूसते रहना चाहते हैं। यद्यपि उन्हें स्तनों से दूध नहीं मिलता, लेकिन फिर भी उन्हें स्तन चूसने में आनन्द आता है। उनकी इस बुरी आदत को कभी भी प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। वैसे माता को धीरे-धीरे स्वयं य हनुमान हो जाता है कि बच्चे को कितनी देर में पेट भरने लायक दूध मिल जाता है। भरपेट दूध पीते ही बच्चे के मुंह से स्तन छुड़ा लेना चाहिए।
(4) स्तनपान कब तक कराना चाहिए
बच्चे को कितनी उम्र स्तनपान कराना चाहिए, यह बच्चे की वृद्धि,तन्दुरुस्ती और विकास, माता का स्वास्थ्य, स्तनों की क्षमता, अपलब्धि और गुणवत्ता इत्यादि बातों पर आधारित है। फिर भी सामान्य परिस्थितियों में आठ-दस माह तक बच्चों को स्तनपान कराना चाहिए। स्तनपान छुड़ाने का यही जीवन-काल अनुकूल तथा उत्तम है। इसके बाद उसके पोषण-आहार की आवश्यकताएँ क्रमशः बढ़ती हैं और माता के स्तनों में दूध की मात्रा घटती है। इसलिए अब स्तनपान जारी रखना निरर्थक सिद्ध होता है। इसके बाद उसे उपलब्धतानुसार क्रमशः शुद्ध बकरी का दूध, गाय का दूध, भैंस का दूध, फिर ताजे व मौसमी फल, तदुपरान्त हल्का-फुल्का भोजन, तत्पश्चात् पूर्ण-आहार देना चाहिए।

(5) स्तनपान कैसे छुड़ाएँ
की माताएँ कोई साधारण –सा बहाना करके किसी का परामर्श लिए बिना स्तनपान छुड़ाने में अति शीघ्रता कर लेती हैं। फलतः बच्चा प्राकृतिक आहार से वंचित हो जाता है। किसी भी माता को अपनी सुख-सुविधा व शांति के लिए अपने शिशु को प्राकृतिक आहार से वंचित नहीं करना चाहिए और न ही अन्य दूध तैयार करने के झंझट से बचने के लिए चार-चार पाँच-पाँच वरष तक दूध पिलाते ही रहना चाहिए। जिस प्रकार स्तनपान नहीं कराने से बच्चे के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार अपेक्षाकृत काफी लम्बे समय तक स्तनपान कराते रहने से भी बच्चे के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता । की बार अनेक ऐसी परिश्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि दूध छुड़ाने की शीघ्र आवश्यकता पड़ जाती है, जैसे-माता की मृत्यु, पुनः गर्भधारण इत्यादि अनेक ऐसी विकट परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण स्तनपान छुड़ाने के लिए बाधित हो जाना पड़ता है।

एकाएक दूध छुड़ाने पर माता के लिए तत्काल दूध बन्द करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। इससे माताएँ अस्वस्थ भी हो सकती हैं। स्तनपान छुड़ान लिए माताएँ कभी-कभी अपने चूचुकों में अत्यन्त खारे, तीखे व कड़वे पदार्थों का लेपन कर लेती हैं। इससे कुछ बच्चे माँ का दूध भी छोड़ देते हैं और अन्य दूध से भी उन्हें घृणा होने लगती है। ऊपर से वे समय पर भोजन (पूर्ण आहार) भी नहीं पचा सकते । इसके विपरित कुछ बच्चे ऐसे ढीठ, भी होते हैं कि वे कड़वा-मीठा खारा तीखा सब कुछ साथ ही पी जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में बच्चे का स्वास्थ्य बिगड़ जाने की संभावनाएँ बनी रहती हैं। इस कष्टप्रद विधि को व्यवहार में लाए बिना भी बहुत आसानी से स्तनपान छुड़ाया जा सकता है।

बच्चे की सर्वप्रथम प्रेयसी उसीक अपनी माता है। उसे सबसे पहले प्रेम उसके स्तनों से होता है, जिनसे वह बहुत आनन्दित होता है। बच्चा स्तनों से केवल आहार ही प्राप्त नहीं करता,वह उन्हें चूसने में आनन्द भी प्राप्त करता है। प्रायः बच्चे भरपेट दूध पी लेने के बावजूद अपनी माता के स्तनों से खेलते रहना चाहते हैं। इसलिए माता को भी स्तनपान कराना एक नीरस कर्तव्य मात्र नहीं समझना चाहिए। उसे बड़ी रुचि, प्यार व लगाव के साथ बच्चे को दूध पिलाना चाहिए या फिर यों कहें कि उसकी अत्यन्त प्रियवस्तु उसे बड़े शौक व सम्मान के साथ देनी चाहिए। दूध छुड़ाने से बच्चे की यह प्यारी चीज उससे छिन जाती है। जिन बच्चों को अपनी माता के स्तनों स सम्पूर्णनन्द प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता वे अंगूठा चूसने की आदत बना लेते हैं र अज्ञानतावश सी से आनन्दित होते हैं। यदि बच्चे से माता के स्तन समझकर उसी से संतोष प्राप्त करना पड़ता है। स्तन-अग्र और अंगूठा दोनों को वह एक दूसरे का पर्याय समझता है। यह भावना बच्चे के अन्तस में सदा के लिए समा जाती है। इसलिए यदि बच्चा अंगूठा चूसता रहे, तो एक स्थायी चस्के से वंचित न रखा जाय। बलपूर्वक उसमें मुँह से अंगूठा निकालकर उसके हार्दिक दुःख को दुगुना न करें। उसके लिए उसके मन बहलाने की सामग्री जुटाएँ।

जब बच्चे से उसकी माता की छाती छीन ली जाती है तो वह समझता है किउसकी माता ही उससे छीन ली गई है, क्योंकि वह अपने जन्म के समय से ही माता और वक्षस्थल को एक ही चीज समझता आया है। इसलिए स्तनपान छुड़ाने के दिनों में उसके लिए माता के स्न्नेह की अधिक आवश्यकता होती है। इस कारण स्तनपान इतने प्यार से, इतने धीरे-धीरे और इतनी मेहनत के साथ छुड़ाया जाय कि बच्चे के दिल में सदा के लिए निराशा का भाव जड़ न जमा ले। स्तनपान छड़ाने का उद्देश्य केवल यही नही होना चाहिए कि उसे किसी एक वस्तु से पृथक कर दिया जाए, बल्कि बच्चे के मन में बड़े लाड़ और प्यार से किसी अन्य वस्तु के प्रति लगाव भी पैदा कर देना चाहिए।

यद्यपि बच्चा उत्पन्न होन के दिन से ही स्तनपान करता है तथापि उसे दो चार महीने बाद से ही ग्लूकोज, पानी आदि बोतल के माध्यम से पिलाना चाहिए और चार-छः महीने बाद फलो का रस विभिन्न रंग-बिरंगे एवं आकार-प्रकार के कप-प्याले व गिलास के माध्यम से पिलाना चाहिए ताकि उसे स्तनपान के अलावा कुछ और भी पीने की आदत पड़ जाए। संभव है कि बच्चे को कोई बोतल ही प्यारी लगने लगे, कोई सुन्दर गिलास ही उसे भा जाए, किसी रंगीन प्याली को ही वह पसन्द करने लगे और बच्चा हँसते-खेलते क्रमशः पानी, ग्लूकोज, विभिन्न फलों का रस एवं अन्य शुद्ध दूध भी पी जाए। स्तनपान छुड़ाना भी एक कला है । बच्चे के व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेक गुण-दोष इस बात से संबंधित होते हैं। पूर्णतः सफलतापूर्वक स्तनपान छुड़ाने मात्र स हम बच्चे को स्वावलम्बन के मार्ग पर चलना सिखाते हैं। बच्चा कितनी प्रसन्न के साथ इस मार्ग पर चलता है यह हमारी बुद्धिमत्ता और हमारे परिश्रम पर निर्भर है।

दूध उतारने की युक्ति
आमतौर पर प्रसूता के स्तनों से ही दूध उतरता है और वह भी प्रसव के बाद लगभग साल भर तक। कभी-कभी दादी और नानी को भी अपने पौत्र और दौहित्र को स्तनपान कराते देखा अथवा सुना गया है। इतना ही नहीं, अविवाहित नव-युवतियों के भी दूध उतरने के अनेक दृष्टान्त सुने गये है। यद्यपि ऐसे दृष्टान्त बहुत ही कम हैं, पर हैं जरूर। इससे भी अधिक अनेक विचित्र किन्तु सत्य प्रमाण चिकित्सा विज्ञान के पास मौजूद हैं, जिनमें से एक यह है कि डॉक्कटर हम्बोल्ट के अनुसार-एक चालिस वर्षीय अफ्रीकन हब्शी पुरुष ने कई बार अपने बच्चोंको कई मास तक अपना दूध पिलाया था।

ऐसे उदाहरण अत्यन्त अद्भुत तथा विलक्षम जरूर हैं, लेकिन इनका वैज्ञानिक कारण यह है कि अत्यधिक ममता व प्रेम प्रदर्शित करने, बारम्बार स्तनों पर निरन्तर ध्यान करने, उनमें उत्तेजना उत्पन्न करने, बच्चे को वक्षस्थल से बार-बार लगाने और उसके मुँह में स्तन अग्र को देने से हब्शी पुरुषों, नव-युपतियों व वृद्धा महिलाओं के स्तनों से भी दूध उतरने लगता हैं। इस मृत्युलोक में जितने भी स्तनधारी प्राणी हैं, उनमें से केवल मानव जाति की अनेक नारियाँ ही ऐसी हैं, जिन्हें शिकायत है कि उनके स्तनों से दूध नहीं उतरता और वे अपने बच्चों को बोतल थमा देती हैं। ध्यान रहे कि बोतल किसी समस्या का समाधान नहीं, मानसिक तनाव की दुखद परिणति है।

प्रकृति व वनस्पतियों के अधिक निकट रहने-बसने वाली ग्रामीण अंचलों की महिलाएँ भी अन्य स्तनधारी प्राणियों की भाँति दूध न उतरने सम्बन्धी बीमारी से अनभिज्ञ रहती हैं । वे इससे बखूबी परिचित हैं कि भैंस,गाय, भेड़, बकरी वगैरह के समान कुछ एक महिलाओं के स्तनों में भी आवश्यकता से अधिक दूध बनता है, जो क्रमशः अन्य मानव शिशु के अधिकाधिक काम आ सकते हैं / आते हैं । संभव है किसी शहरी महिला के स्तन से एक-आध सप्ताह दूध नहीं उतरता हो, लेकिन महीनों दूध न उतरे, यह स्तनपान कराने कराने सम्बन्धी तथाकथित झंझटों से मुक्ति पाने का एक बहाना मात्र है। दूध न उतरना किसी भी दृष्टिकोण से लाइलाज अथवा असाध्य रोग नहीं।

निःसंदेह नगरीह रहन-सहन के अप्राकृतिक ढंग, वायु-प्रदूषण मिलावटी भोजन इत्यादि के कारण नगर नगर-निवासी अनेक माताओं का दूध अपेक्षाकृत कम उतरता है, जिससे बच्चे का पेट नहीं भरता । कर्मचारी-अधिकारी व मजदूर महिलाओं को अपे बच्चों से काफी देर तक अलग रहना पड़ता है। फलतः उनके भी दूध क्रमशः कम उतरने लगता है। माता का स्वास्थ्य अच्छा न हो, अजीर्ण अथवा कोई अन्य रोग हो, अत्यधिक या बहुत कम खाने से भी दूध कम बनता है। बढ़ती उम्र के साथ-साथ दूध का बनना भी क्रमशः कम होता जाता है। इन सब कारणों के अतिरिक्त अन्य अनेक कारणों से माता के स्तन-अग्रों में दूध आना कम होता जाता है। अन्ततः कभी-कभी बन्द भी हो जाता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार अग्रांकित विभिन्न औषधियों के सेवन करने मात्रसे यह व्याधि दूर हो जाती है।
(क)आयुर्वेदिक औषधि
(1) साधारणतया प्राकृतिक रहन-सहन, प्रसन्न चित्त, निर्मल व शुद्ध जलवायु का भी दूध पर प्रभाव पड़ता है। भोजन मे पूर्णतः सुतुलित पोषक व पौष्टिक खाद्य पदार्थ लेना चाहिए। दूध भी खबूब पीना चाहिए । खासकर मोटी महिलाओं को अपने आहार में घी कम कर देना चाहिए इसके अलावा कुछ व्यायाम भी अवश्य करना चाहिए। यदि माता का स्वास्थ्य अच्छा हो और दूध की कमी रोग के कारण न हो और सिर्फ दूध उतरता न हो, तो समझना चाहिए कि छोटा बाल़क दूध अच्छी तरह से खींच सकने में असमर्थ है। इस स्थिति में अपने स्वयं के या परिवार अथवा कुटुम्ब के अन्य कुछ बड़े बच्चे को कुछ समय तक पहले दूध पिलाना चाहिए, इससे दूध उतरने लगेगा।
(2)अरंड (एरंड या रेंड अथवा रेंडी) के पत्तों को गरम करके छाती पर बाँधने से दूध उतरने लगता है।
(3)अरंड के पत्तों को पानी में खूब औटाकर उस पानी में कपड़ा भिगोकर छाती पर रखने से दूध उतर आता है।
(4) जिन महिलाओं के स्तनों से दूध बिलकुल नहीं निकलता हो,तो उन्हें सफेद जीरा के साथ दूध लेना चाहिए। इससे दूध आने लगता है।
(5) सफेद जीरा और साँठी चावल दूध में पका कर पीने से स्तनों में दूध बढ़ जाता है।
(6) पीपर का पूर्ण दूध के साथ लेने से भी लाभ होता है।
(7) सोमवल्ली का अर्क सेवन करने से भी फायदा होता है।
(8) शतावर दूध में पीसकर पीने से भी लाभ होता है।
(9) विदारी कंद का रस पीने से फायदा होता है।

(10) “पूर्ववज्जीवकाद्यं च पंचमूलं प्रलेपनम्।
स्तनयोः संविधातव्यं सुखोष्णं स्तन्यशोधनम्।।”
-चरक संहिता।
अर्थात जीवनीयदशक (जीवकाद्य गण) और बृहत्पंचमूल स्तनों पर कुनकुना-गरम लेप देना चाहिए और शष्क होने पर लेप को धोकर दूध दूह लेना चाहिए। ऐसा बारम्बार करने से दूध का रूक्षता दोश हट जाता है।
(11)“स्त्रिग्धक्षीरा दारूमुसतपाठा : पिष्ट्वा सुखम्बुना।
पीत्वा ससैन्धवाः क्षिप्र क्षीरशुद्धिमवाप्रुयात्।।”
-चरक संहिता।
अर्थात जिसका दूध अतिस्त्रिग्ध हो वह देवदारू, मोथा, पाठा, इनके कल्क में किंचित सैन्धानमक मिलाकर कोसे जल से पीवे। इससे दूध शीघ्र शुद्ध हो जाता है।
(12)“त्रायमाणामिता निम्बपटोलत्रिफलाश्रुतम्।
गुरुक्षीरा पिबेदाशु स्तन्यदोषविशुद्धये।।”

-चक संहिता।
अर्थात जिस महिला का दूध गुरु हो वह त्रायमाण, गिलोय, नीं की छाल, पटोलपत्र, त्रिफला, इनका क्काथ दूध के दोष की शीघ्र शुद्धि के लिए पीवे।
(ख) होमियोपैथिक औषधि
(1) कैलकेरिया फॉस-3
जिन महिलाओं को पहले प्रसव में ही दूध कम उतरा हो उन्हें दूसरा प्रसव होने के 2-3 माह पूर्व से ही कैलकेरिया फॉस-3 की 5-5 गोलियाँ दिन में 3 बार चूस कर सेवन करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। इससे प्रसव के बाद पर्याप्त मात्रा में दूध उतरने लगेगा।
(2)बोरेक्स-30
जिन महिलाओं का दूध पतला हो,दूध का स्वाद अच्छा न होने के कारम बच्चा दूध पीना न चाहे, तो बोरेक्स-30 की 3 गोलियाँ दिन में एक बार सात दिन तक लेने से फायदा होता है। पहले प्रसव काल में ऐसी ही स्थिति रही हो, तो दूसरे प्रसव के पूर्व 8 वें 9वें महीने में इसका सेवन करने से यह शिकायत पुनः नहीं होती।
(3)सेबल सेरूलेटा-क्यू मदरटिंचर)
दूध को बढ़ाने के लिए यह औषधि अत्यधिक गुणकारी है। जिन महिलाओं के स्तन पूर्ण विकसित व सुडौल न होकर सुकुड़े हुए व छोटे हों, उनको विकसित, पुष्ट और सुडौल करने मे भी यह औषधि अच्छा काम करती है और दूध की मात्रा बढ़ाती है। सेवन सेरूलेटाक्यू को2 चम्मच पानी में 5-7 बूंद टपकाकर दिन में 3-4 बार पीना चाहिए।
(4)रेसीनस-न्यू-1 (मदर टिंचर-क्यू)
दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए यह दवा अत्यन्त महत्पूर्ण है। जिन महिलाओं को चक्कर आता हो, मुँह सूखता अथवा प्यास अधिक लगती हो, पतले दस्त तथा उल्टियाँ होती हों, पेट में दर्द होता हो, कमजोरी हो और दूध की मात्रा में कमी हो, तो रेसीनस-क्यू-1 अत्यधिक गुमकारी है। मुँह साफ करके इस दवा की दो बूंद जीभ पर टपका लें या फिर2 चम्मच पानी में इसकी 2 बूंद टपका कर दिन में तीन बार पिएँ।
(5)ब्रायोनिया-30
कड़ापन अथवा सूजन आ जाने के कारण स्तनों से दूध कम उतरे, तो ब्रायोनिया -30 का सेवन करना चाहिए। स्तनों के जरा से हिलने-डुलने पर कष्ट होना इस व्याधि का प्रमुख लक्षण है। यह लक्षम ज्ञात होने पर 3 दिन तक दिन में तीन बार 3-3 गोलियाँ मुँह में रखकर चूसना चाहिए।
(6)स्टिक्टा -30
नात बंद हो, साइनस की तकलीफ हो, हल्का बुखार हो और दूध क आता हो तो पहलेदिन स्टिक्टा-30 की 3-3 गोलियाँ 12-12 घंटे के अन्तराल में 3 खुराक लें और तीसरे दिन सुबह स्टिक्कटा-20 की 3 गोलियों की एक खुराक लें। इससे दूध की मात्रा तो बढ़ेगी ही, इसके अलावा अन्य तकलीफें भी दूर हो जाएँगी।
(7) पल्सेटिला -30
स्तनों में इस कदर दर्द हो कि शिशु के दूध पीन पर अत्यधिक कष्ट से माता की आँखों से आँसू निकल पड़े, दूध बहुत कम हो जाए, तो पल्सेटिला-30 अत्यन्त उपयोगी दवा है। महिला को प्यास कम लगना, अन्यों से सहानुभूति पाने की इच्छा रखना, अपना दुःख दूसरों को बताते समय रोने लगना इत्यादि इस व्याधि के प्रमुख लक्षण हैं। इन लक्षणों के उजागर होने पर इसकी 3-3 गोलियां तीन दिन तक लेना ही काफी होगा।
(8) कैमोमिला -30
अगर शोक। चिड़चिड़ाहट अथवा क्रोध के कारण दूद सूक जाए या फिर कम हो जाए, तो कैमोमिला-30 के सेवन से फायदा होता है। इसकी 3-3 गोलियाँ सुबह-शाम चूसने से 5-6 दिन में ही फायदा होने लगता है।
(9) कैलकेरिया कार्ब -30
प्रसूता को वर्षा के मौसम में ठण्ड लग जान से दूध कम हो जाए तो कैलकेरिया कार्व-30 की तीन खुराक 3-3 गोली 12-12 घम्टे के अन्तर से 3-3गोली दिन में तीन खराक लेने से फादा होता ।
(10) डलकामारा -30

प्रसूता को वर्षा के मौसम में ठण्ड लग जान से दूध कम हो जाने से दूध कम हो जाए, तो डलकामारा -30 की तीन खुराक 3-3 गोलियाँ 12-12 घण्टे के अन्तर से लेने पर यह बीमारी दूर हो जाती है।
(11)मर्क सोल-30
माता को डीसेंट्री को अथवा पहे हो चुकी हो, दू्ध पतला या कम मात्रा में हो तो मर्क सोल-30 को 12-12 घण्टे के अन्तर से 3-3 गोलियाँ की तीन खुराक लेने से फायदा होता है।
(12) एकोनाइट -30
प्रसव उपरान्त की बार प्रसूता को स्तन्य ज्वर हो जाता है। इससे दूध दूषित हो जाता है। ऐसी स्थिति में एकोनाइट-30 की 3-3 गोलियाँ दिन में तीन खुराक लेने से फायदा होता हैं।
(13) रियूम-3
दूध का स्वाद कड़वा अथवा खट्टा हो, रंग पीला हो, तो रियूम-3 पहले दिन 3-3 गोलियों की तीन खुराक लें। लाभ न हो तो रियूम-6 दूसरे दिन3-3 गोलियों की तीन खुराक लेने से लाभ होता है।
(14) आर्निका मदर टिंचर लोशन
बच्चे की कोहनी अथवा सिर टकरा जाने, अन्य किसी चीज से मसला जाने, रगड़ खाने या फिर चोट लगने से स्तनों में दर्द हो तो आर्निया मदर टिंचर के लोशन से स्तनों को धोने से आराम होता है। दूध पिलान से पहले स्तनों को धो-पोंछकर ही बच्चे को दूध पिलाना चाहिए।
(15)केलेन्डुला मदर टिंचर
कई बार कूचों और चूचुकों में काफी दर्द होता है। फलतः बच्चे के मुँह में स्तन देना मुश्किल हो जाता है। केलेन्डुला मदर टिंचर की 20-25 बूंद आधा कप पानी में घोलकर स्तनों को धोने से आराम मिलता है। दूध पिलाने से पूर्व अनिवार्यतः स्तनों को धो लें। उसके बाद ही बच्चे को दूध पिलाएँ।
सभी दवाओं के सेवन करने से एक घंटे पूर्व और एक घण्टे पश्चात कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए। गोलियों को पानी के साथ नहीं लेना चाहिए, बल्कि शीशी से एक साफ कागज पर गोलियाँ लेकर मुँह डाल कर चूसना चाहिए।

स्तनपान कराने की पद्धति


बालक को स्तनपान कराने से जो पोषण और आरोग्य विषयक लाभ होते हैं, उससे अधिक लाभ तो स्तनपान की उचित पद्धति अपनाने से होता है। स्तनपान कराना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके साथ आरोग्य व स्वस्छता भी स्पष्टताः जूड़ी हुई है। शिशु को स्तनपान करने से पूर्व माता को अपने हाथ साबुन से रगड़कर धो डालने चाहिए। तत्पश्चात् चूचुकों को कुनकुने पानी से धोकर अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए, साथ ही स्वच्छ कपड़े से पोंछ डालना चाहिए । इसके अलावा गर्म पानी में भिगोए हुए कपड़े से पूरे स्तनों को पोंछ डालना चाहिए। तदुपरान्त ही बच्चे को स्तनपान कराना चाहिए, अन्यथा कदापि नहीं।

माता को चाहिए कि एकान्त,शांत व खुली (हवा-प्रकाशयुक्त) वातावरण में बच्चे को स्तनपान कराए। स्तनपान मात्र शारीरिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि इसके साथ जच्चा और बच्चा दोनों का भावतंत्र भी सक्रिय होता है। इसलिए माता अत्यन्त शान्ति के साथ, दत्तचित होकर,प्रेम-पूर्वक, उत्तम विचारों व स्मित-उमेंग के साथ बच्चे को दूध पिलाए। जल्दबाजी, व्यग्रता, क्रोध व आक्रोश में आकर यह क्रिया न करें। ऊँची आवाज में बेलते हुए अथवा लड़ने-झगड़ने की प्रक्रिया जारी रखते हुए बच्चे को कभी स्तनपान न कराए। इन परिस्थितियों में स्तनपान करने से बच्चे को दूध पीने का कोई पोषक लाभ नहीं मिलता तथा उसके भावावेग, को शान्ति प्राप्त नहीं होती। बच्चे का का मन, मस्तिक व भावतंत्र शरीर के साथ जुड़ा हुआ होने के कारण उसे उचित, योग्य एवं प्रेरक वातावरण मिलना ही चाहिए।

जो माताएं प्रसव के लिए अस्पताल जाती हैं, उन्हें अस्पताल में ही बच्चे को स्तनपान कराना पड़ता है। अस्पताल में नसों और डॉक्टरों के अपरिचित चेहरे, रोती-चिलालाती रोगिणी एवं अन्य प्रसूताएँ, नियमों का कड़ाई से पालन, घर वालों से अलग-थलग रहना, इन सब बातों से उनका जी घुटा-घुटा सा रहता है। इस प्रकार अस्पताल मे जो घुटन की भावना बनी रहती है, वह दूध को कम कर देती है। अक्सर यह देखने में आता है कि ऐसी माताओं को अस्पताल में दूध इतना कम उतरता है कि उन्हें यह आशंका होने लगती है कि बालक का पेट भरने के लिए कहीं उनका दूध कम तो नहीं पडे़गा या कहीं उन्हे ऊपर का दूध तो नहीं पिलाना पडे़गा ? दरअसल अस्पताल के दूषित वातावरण के कारण यह सब मन पर प्रभाव पड़ता है।ऐसी माताएँ अस्पताल में अपनापन नहीं महसूस करतीं। अस्पताल से छुट्टी मिल जान पर जब वे घर आतीं हैं, तो उन्हीं माताओं को शान्ति मिलती है, आत्मीय वातावरम व स्वच्छन्दता मिलती है, तब अनायास ही उनका दूध बढ़ जाता है। कई माताओं के स्तनों से बढ़ा हुआ इतना अधिक उतरता है कि बच्चा पी नहीं पाता।

भावनाओं का दूध पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। अतएव बच्चे को दूध पिलाते समय माँ को मन में चिन्ता, शोक व क्रोध जैसी दुःखोत्पादक भावनाएँ लानी ही नहीं चाहिए। च्चे को तो हमेसा हर्ष व उल्लास के साथ हल्के मन से दूध पिलाना चाहिए। इससे भरपूर दूध उतरता है। साथ ही ऐसे दूध पिलाना चाहिए। इससे भरपूर दूध उतरता है। साथ ही ऐसे दूध से ही बच्चे का स्वास्थ्य-वर्धन होता है। धुःखोत्पादक भावनाओं के प्रभाव से दूध तो कम उतरता ही है, इसके अलावा वह दूध बच्चे के स्वस्थ्य के लिए भी हानिकारक सिद्ध होता है।

यदि किसी कारणवश स्तनपान कराने वाली माताओं का मन दुःखित, मस्तिष्क चिंतित और आत्मग्लानि हो और तभी बच्चे को दूध पिलाने का समय आ जाए, तो कुछ समय ठहर कर मन को किसी भी प्रकार से हलका कर लेना चाहिए। चाहे तो माता उस समय कोई हलकी-फुलकी बात-चीत या व्यंग-विनोद करके मन बहलाए अथवा रेडियो, टेपरिकार्ड, टी वी सुने या देखे या फिर किसी भी प्रकार से मन को प्रफुल्लित कर ले। बेहतर तो यही है कि माता को दुध पिलाने के समय से आधे घण्टे पहले से ही सावधान ही जाना चाहिए, ताकि दूध के पिलाने के लिए नियत समय को आगे-पीछे न करना पड़े।

वस्तुतः दुःखोत्पादक भावनाओं से सारे शरीर में एक प्रकार की तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस तनाव के कारण अंग-प्रत्यंग की भिन्न-भिन्न ग्रन्थियों का ताल-मेल बिगड़ (गड़बड़ा) जाता है। फलतः स्तनों की ग्रन्थियों भी इससे दुष्प्रभावित होती हैं, अनियंत्रित होती हैं, अनियमित होती हैं, जिसके कारम दूध अपेक्षाकृत कम उतरता है। यदि माताएँ कभी-कभी दुःखोत्पादक भावनाओं में अत्यधिक डूबी रहती हैं, तब कई बार तो दूध बिल्कुल उतरता ही नहीं और स्तन तनाव के कारण भारी बने रहते हैं। मन को प्रफुल्लित करने वाली सुखोत्पादक भावनाएँ स्तन की पेशियों को ढीला तथा सक्रिय बनाती है।प्रसन्नता की लहर से दूध की ग्रन्थियाँ उत्तेजित होकर अधिक दूध स्त्राव करती हैं।

निःसंदेह माता दूध पिलाने के लिए दिन-रात, चौबीस घंटे एक ही तरीका नहीं अपना सकती। कई माताओं को लेटकर दुध पिलाने से नींद आ जाती है और दिन में घरेलू काम धंधे के कारण उन्हें झपकी लेने का समय ही नहीं मिलता । की माताओं के लिए रात्रि जागरण करना और ऊपर से बैठकर दूध पिलाना अत्यन्त कठिन काम हो जाता है। कभी-कभी ऐसा समय भी आ जाता है कि जब माता को खड़े-खड़े ही दूध पिलाना पड़ता है। इसलिए जिस समय जैसी भी सुविधा हो, वैसी ही पद्धति से दूध पिला देना चाहिए। ध्यान रहे कि जो भीतरीका अपनाएँ, वह जच्चा व बच्चा दोनों के लिए आरामदेह हो। इस सम्बन्ध में कड़ाई स कोई नियम पालन करना आवश्यक नहीं। साथ ही एक ही तरीका अपनाने से बच्चा उसी तरीके से दूध पीने का अभ्यासी हो जाता है। इस कारण अन्य तरीके से दूध पीने में वह असुविधा महसूस करता है और भरपेट दूध नहीं पी सकता। इसलिए वही पद्धति सर्वोत्तम है, जिसमें माता आराम से पिला सके और बच्चा आराम से पी सके।

प्रसव के उपरान्त माता अत्यन्त दुर्बल हो जाती है तथा उसके शरीर में पर्याप्त मात्रा में शक्ति नहीं होती है। जब तक प्रसूता में इतनी ताकत नहीं आ जाती कि वह अपने बच्चे को बैठकर दूध पिला सके, तब तक उसे लेटकर ही दूध पिलाना चाहिए। माता को चाहिए कि जिस ओर शिशु लेटा हो, उस ओर करवट लेकर स्तनमुख को उसके मुँह में दे दे। शिशु के मुँह में स्तनमुख पहुँचते ही वह स्वाभाविक रीति से उसे चूसने लगता है। उसे स्तनपान करने के लिए सिखाने-पढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

जब माता उठने बैठने योग्य हो जाए, तो लेटकर दूध नहीं पिलाना चाहिए। क्योंकि लेटकर दूध पिलाने से जो दूध बच्चे के मुँह में जाता है, उसका कुछ भाग प्रायः मुँह के अन्दर से होता हुआ उसके कान के भीतरी भाग तक पहुँच जाता है । इससे बच्चे के कान बहने लगते हैं। साथ हीकान सम्बन्धी और भी रोग हो जाते हैं। इसलिए बच्चे को हमेशा बैठकर ही दूध पिलाना सर्वोत्तम होता है। बैठकर दूध पिलाने का भीएक निश्चित आसन होता है। जिस घुटने पर बच्चे का सिर हो, उसे कुछ इस प्रकार ऊँचा कर लेना चाहिए कि बच्चे का मुँह स्तन तक आसानी से पहुंच सके। बच्चे के सिर नीचे अपना हाथ पर प्रकार लगा लेना चाहिए कि उसे दूध पीने में कोई असुविधा न हो, जैसा कि पीछे पृष्ठ क्रमांक 74 में चित्र द्वारा स्पष्ट दिखाया गया है।

बच्चे के पेट में दूध के साथ-साथ कभी-कभी हवा का प्रवेश भी हो जाता है। दूध पिलाने के बाद बच्चे को कन्धे से लगाकर उसकी पीठ को हल्के से थपथपाना चाहिए । साथ ही जब तक डकार न आ जाए, नीचे की ओर से ऊपर की ओर धीरे-धीरे पीठ को सहलाते रहना चाहिए। इससे वायु विकार रोकने में काफी सहायता मिलती है।

स्तनों में दूध बढ़ाने के उपाय


गर्भवती महिलाओं को। खासकर जो पहली बार गर्भवती हुई हैं, चौथे-पाँचवे महीने से ही अपने स्तनों की देखभाल प्रारम्भ कर देनी चाहिए, क्योंकि यदि कुचों व चूचुकों में कोी नुक्स है, तो प्रसूता होने से पूर्व ही ठीक किया जा सकता है। प्रसव के बाद इस दोष को ठीक करना कठिन हो जाता है। गर्भवती महिलाओं के स्तनों का आकार बढ़ जाता है, क्योंकि इसके अन्दर दुग्ध उत्पन्न करने की तैयारी होन लगती है। तीसरे महीने के आसपास चुचूकों मे से फीके दुधिया रंग का पानी निकलने लगता है। अगर इस द्रव्य को साफ न किया जाए, तो यह सूख जाता है और चूचुकों के छिद्रों को बन्द कर देता है। प्रायः इस जमे हुए स्त्राव में रोग उत्पादक जीवाणु पैदा होकर कुचों में खुजली व जलन पैदा कर देते हैं। इसलिए गर्भवतियों को चाहिए कि स्नान के समय कुचों को भलीभांति साफ कर लिया करें।

वैसे तो जो नवयुतियाँ या नवविवाहिता साधारण दिनों में अपने स्वास्थ्य के प्रति विशेष ध्यान रखती हैं, तथा स्तन सौंदर्य बरकरार रखने संबंधी सहायक व्यायाम करती रहती हैं उनके स्तन पूर्णतः विकसित हो जाते हैं। यदि व्यायाम करते रहने के बावजूद संतन अविकसित अथवा अर्द्धविकसित बने रहें, तो भली-भाँति विकसित करने के लिए अन्य उपाय भी करने चाहिए। इसके लिए “ब्रैस्ट पम्प एवं निप्पल शील्ड” की सहायता ली जा सकती है।

बच्चे का सबसे पहला और गहरा सम्बन्ध उसकी माता के साथ पड़ता है। जन्म लेने के बाद बच्चा सबसे पहले अपनी माता के स्तनों के सम्पर्क में आता है। चूँकि इन्हीं माध्यमों से वह मां का दूध पीता है, इसलिए उसे स्तनों से बड़ा लगाव रहता है्। नन्हा-मुन्ना जब माँ का दूध पीता है, तब बारम्बार स्तनों के देखता भी है। उस समय उसे अपने शरीर की तुलना में माँ के स्तन बहुत भारी व विशालकाय दिखाई देते हैं। काफी बड़े और उन्नत उरोजों को देखकर उसकी आँखों को बड़ी तृप्ति मिलती है। स्तनपान का सबसे अधिक और स्थायी लाभ यह होता है कि बच्चा बहुत जल्दी यह समझने लगता है कि वह अपने भोजन के लिए अपनी माता पर निर्भर है। वह उसे बड़े प्रेम की दृष्टि से देखने लगता है। जब भी उसकी माँ उसके सामने आती है, उसकाचेहरा प्रसन्ननता से खिल उठता है। अतिशीघ्र माता और बच्चे के बीच एक लगाव, अपनापन तथा ममत्व स्थापित हो जाता है।

जब बच्चे की माता दूध नहीं पिलाएगी, तब बच्चा माता को किस रूप में पहचानेगा ? उसके लिए जिस तरह अन्य पारिवारिक सदस्य हैं, ुसी तरह उसकी माता भी सामान्य व्यक्ति के रूप में उसके सामने आती है। फलतः बच्चे का माता के प्रति स्वाभाविक लगाव नहीं रहता । इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता अपनी संतानों के लिए, संतानों के लाड़-प्यार के लिए तरसते रहते हैं। इसलिए स्वाभाविक प्रेम व ममता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि माता अपने बच्चे को अपना ही दूध पिलाये।

जन्म के तुरन्त बाद शिश तथा माता जितना अधिक पास रहेंगे उनका आपसी लगाव उतना ही प्रगाढ़ हो जाएगा। स्तनपान से शिश व माता का लगाव अपेक्षाकृत अधिक पुष्ट हो जाता है, भावनात्मक बन्धन सुदृढ़ होता है। मातृत्व का अनूठा उपहार अमृततुल्य स्तनपान करा सकने मे सक्षम प्रत्येक महिला को अपनी क्षमता में विश्वास रखते हुए नव-जीवन प्रारम्भ कर रहे अपने बच्चे को उसके जन्मसिद्ध अधिकार से कदापि वंचित नहीं करना चाहिए।

जन्म के बाद एक घंटे तक नवजात शिशु में स्तनपान करने की तीव्र इच्छा होती है। बाद में उसे नींद आने लगती है। इसलिए जन्म के बाद जितनी जल्दी माँ बच्चे को दूध पिलाना शुरू कर दे, उतना ही अच्छा है। आमतौर पर जन्म के 45 मिनट के अन्दर स्वस्थ बच्चों को स्तनपान शुरू करवा देना चाहिए। शल्य-चिकित्सा द्वारा उत्पन्न हुए बच्चों से भी माता पर बेहोशी की दवा का असर समाप्त होते ही स्तनपान शुरू करवा देना चाहिए। जन्म के तुरन्त बाद बच्चों को माँ का दूध पिलाने से स्तनपान की सफलता तथा उसकी अवधि बढ़ जाती है। स्तनपान की सफलता में शुरू के कुछ दिनों के प्रयास का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

चिकिस्ता विज्ञान के पास ऐसे अनेक प्रमाण मौजूद हैं, जिनमें से एक उदाहरण यह है कि “मेरे स्तनों में भी दूध उत्पन्न होने लग जाए” ऐसे दृढ़ संकल्प मात्र से की ऐसी महिलाओं, के स्तनों से भी दूध निकलने लगा, जिन्होंने दो-दो चार-चार बच्चों को अपना दूध नहीं पिलाया था, उनके स्तनों से भी दूध निकलने लगा । मानसिक तैयारी और दृढ़ इच्छा शक्ति स्तनपान की पहली दो आवश्यकताएँ हैं। तदुपरान्त अपनी योग्यता पर विश्वास होना सफलता के लिए अगला कदम है। प्रकृति ने हर एक महिला को स्तनपान के लिए समर्थ बनाया है तथा ऐसा कोई कारम नहीं कि वह इस दायित्व को सफलतापूर्वक न निभा सके। स्तनपान की विफलता का सबसे प्रमुख कारण अपनी योग्यता पर संदेह करना और दूध न आने की संभावना मात्र को लेकर उत्पन्न मानसिक तनाव है।

जो माताएँ शान्त व सन्तुष्ट रहती हैं या लाड़-प्यार के साथ अपने बच्चे को अपना दूध पिलाती हैं, उनके स्तनों में दूध भी अधिक उत्पन्न होता है। जो माताएँ बच्चे को बारम्बार छाती से लगाकर अपना दूध पिलाती रहती हैं, उनके स्तनों को चूसने की क्रिया से पीयूष ग्रन्थि को उद्दीपन अधिक मिलते रहने के कारण दूध भी अधिक उत्पन्न होता है। दूध का स्त्राव बढ़ाने का आज तक का ज्ञात सबसे सशक्त उपाय बच्चे का चूचुकों को चूसना है। बच्चे द्वारा माँ का दूध पिये जाने से रिफ्लेक्स सक्रिय होते हैं, जिससे दूध की मात्रा तथा प्रवाह दोनों बढ़ते हैं।

प्रसूता को चाहिए कि वह प्रसव के 45 मिनट के अन्दर एकान्त व शान्त कमरे में अपने नवजात शिशु को बगैर कोई कपड़े पहिनाए अपने वक्षस्थल से लगाए, उसे दुलारे और उसके मुँह में अपना स्तन दे । ऐसा करने से शीघ्रतिशीघ्र स्तन में दूध स्थापित हो जाता है। प्रारम्भिक कुछ दिनों में उत्पन्न कम दूध भी बच्चे की आवश्यकता पूर्ण करने में समर्थ रहता है। उसे अतिरिक्त दूध की आवश्यकता नहीं होती। धीरे-धीरे बच्चे की आवश्यकतानुसार दुध की मात्रा भी बढ़ने लगती है।

साधारणतया प्रारम्भिक चरण में प्रसूता को तीन-तीन, चार-चार घण्टे में नियमित रूप से अपने नवजात शिशु को दुध पिलाना चाहिए। कई माताएँ बच्चे को दिन में इतनी बार दूध पिलाना अपने लिए एक बोझ समझती हैं। उनकी इस अमानवीय विचारधारा मात्र के कारण भी दूध पिलाने के लिए नियत समय पर माता को अपना दूध हाथ से निकाल देना चाहिए, अन्यथा दूध घटना शुरू हो जाएगा।

यदि किसी माता को कोई आर्थिक व घर-गृहस्थी संबंधी चिन्ता बराबर बनी रहती है अथवा झगड़ा झंझट या पारिवारिक कलह बने रहने के कारण वह हर समय परेशान, चिड़चिड़ी और उत्तेजित रहती है, तो उसके अंग-प्रत्यंगों में स्थायी रूप से तना बना रहता है। फलतः स्तनों में दूध की मात्रा क्रमशः कम होती जाती है। प्रायः ऐसी माताओं का दूध समय से पहले ही सूख जाता है। चाहे जैसी भी स्थिति हो, जब तक दूध आना पूर्णतः बन्द न हो जाए, तब तक दूध उत्पन्न करने वाली विभिन्न बाजारू औषधियों का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।

स्तनपान कराने वाली माताओं का आहार-विहार



(1) दूध पिलाने वाली माताओं को गर्भ-निरोधक गोलियाँ खाना बंद कर देना चाहिए, कोई अन्य उपाय अपनाना चाहिए। खाने की इन दवाइयों से दूध हो जाता है।
(2) निकोटीन व नशीले तत्व दूध में मिलकर बालक के पेट में पहुँच जाते हैं। इसलिए न तो धूम्रपान करना चाहिए और न ही मद्यपान।
(3) यदि आप पहले से ही सामान्य व संतुलित भोजन ले रही हैं, तो उस क्रमशः थोड़ा-थोड़ा आवश्यकतानुसार और अधिक बढ़ा दीजिए।
(4) सादा और पर्याप्त भोजन कीजिए।
(5) आपके आहार में काफी दालें, फलियाँ, हरे पत्ते वाली सब्जियाँ, मौसमी फल, दूध, दही और पनीर भी होने चाहिए।
(6) दमाटर और संतरे का प्रयोग अधिकाधिक करें।
(7) ज्यादा मिर्च-गरम मसालेदार और तला हुआ भोजन मत कीजिए।
(8) न तो ज्यादा घी लीजिए और न ही अधिक मिठाइयाँ ही खाइए।
(9) तेज आचार मत खाइए ।
(10) पानी पर्याप्त मात्रा में पीजिए।
(11) अपनी दोनों छातियों पर प्रतिदिन हल्की-हल्की मालिश करें और अपने मन में दूधभरी छातियों की प्रबल अभिलाषा पैदा करें।
(12) रात में जल्दी सो जाएँ और सुबह जल्दी उठें।
(13) प्रतिदिन प्रातःकाल घर से खुली हवा में भ्रमण करन के लिए जाएँ।
(14) अपने मस्तिष्क को ज्यादा बोझिल न होने दें। न तो बहुत अधिक चिन्ता करें और न ही आवश्यक से अधिक सोच-विचार । यदि आप विश्राम कम करेंगे और चिन्ता व सोच-विचार अधिक, तो इन सब बातों का दूध पर बुरा प्रभाव पडे़गा।
(15) स्तनपान के प्रति माता की क्या भावनाएँ हैं, इस पर भी पहुत कुछ निर्भर करता है। यदिआप तनाव रहित हैं, आत्म विश्वास से पूर्ण हैं तथा बच्चे को दूध पिलाने में गर्व अनुभव कर रही हैं, तभी उसे दूध पिलाने अन्यथा कदापि नहीं । यदि आप तनावग्रस्त हैं, अपने आप पर भरोसा नहीं है, आक्रोश मन और अत्यन्त क्रोधित दिल व दिमाग से बच्चे को कभी भी दूध न पिलाएँ । अबोध बालक का पवित्र हृदय और निर्मल मन-मस्तिष्क इन जहरीली भावनाओं को नहीं जेल सकता। फलतः कभी-कभार संतान से हाथ धो बैठन तक का खतरा पैदा हो जाए तो भी कोई आश्चर्य नहीं होन चाहिए।